जीडीपी के अविश्वसनीय आंकड़े

जीडीपी के हाल में जारी किए गए बैक सीरीज आंकड़े अर्थशास्त्र के नियमों को सिर के बल खड़ा करने वाले हैं। इन आंकड़ों में यूपीए शासनकाल में जीडीपी विकास को कम दिखाया गया है, जबकि उस समय जीडीपी की तुलना में निवेश का स्तर 38 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर था। दूसरी तरफ इन आंकड़ों में मोदी सरकार के कार्यकाल में ज्यादा जीडीपी वृद्धि दर दिखलाई है, जबकि इस दौर में निवेश-जीडीपी अनुपात 27 प्रतिशत के सबसे निचले स्तर पर है। अर्थशास्त्र का नियम है कि ज्यादा निवेश बढ़ी हुई जीडीपी का कारण बनता है। ऐसे में अनेक विशेषज्ञों का यह सवाल वाजिब है कि निवेश-जीडीपी अनुपात में कमी आने के बावजूद जीडीपी में बढ़ोतरी कैसे संभव हुई हो सकती है? ऐसा तभी संभव है अगर अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में नाटकीय सुधार हुआ हो। लेकिन मोदी सरकार के साढ़े चार साल के कार्यकाल में ऐसा होने का कोई संकेत नहीं है। बल्कि इस दौरान नोटबंदी और जीएसटी के कारण उत्पादकता पर खराब असर ही पड़ा। फिर एनडीए-2 का कार्यकाल एनपीए भी बढ़ता गया है। इस कारण बैंक कर्ज नहीं दे रहे हैं। इन हालात में उत्पादकता में उछाल कैसे आ सकता है? विशेषज्ञों के मुताबिक जीडीपी के बैक सीरीज आंकड़े भारत को एक जादुई अर्थव्यवस्था के रूप में दिखाते हैं, जहां निवेश अनुपात के तेजी से गिरने के साथ अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ती है। 2007-08 से 2010-11 में, जब निवेश-जीडीपी अनुपात 37.4 प्रतिशत के ऊंचे स्तर पर था, जीडीपी वृद्धि दर 6.7% थी।पिछले चार सालों में निवेश अनुपात गिर गया, जबकि बताया गया है कि इस दौरान अर्थव्यवस्था 7.2 प्रतिशत वृद्धि दर से उड़ान भर रही थी। क्या यह संभव है? गौरतलब है कि बैक सीरीज आंकड़ों को जिस तरह से सिर्फ सीएसओ (केंद्रीय सांख्यिकी संगठन) द्वारा जारी करने की पुरानी रवायत के उलट अब नीति आयोग ने इसे जारी किया है। इसे राष्ट्रीय आंकड़े तैयार करने वाली संस्थाओं के राजनीतिकरण का उदाहरण माना गया है। अगर मुद्रास्फीति का ध्यान रखा जाए- कुछ अर्थशास्त्री तर्क देते हैं कि हमें मामूली संकेतकों की जगह वास्तविक संकेतकों की तुलना करनी चाहिए- तो भी यूपीए के वर्षों में 20 फीसदी से ज्यादा की विकास दर से एनडीए-2 के पहले चार साल के 0% विकास दर की कोई तुलना नहीं हो सकती। आप इस हाथी को चाहे किसी भी तरफ से देखें, निष्कर्ष सिर्फ एक ही निकलता है कि बैक सीरीज के आंकड़े विश्वसनीय नहीं हैं।